आदमी संकट के नाम से ही घबराता है। संकट का आभास होते ही वह उससे बचने के उपाय करने लगता है। लेकिन संसार में शायद ही कोई ऐसा हो जिसने संकटों का सामना न किया हो। लेकिन अपने संकटों से कोई व्यक्ति जितने अधिक सबक सीखता है, वह जीवन में उतना ही सफल होता है।
मार्क रदरफोर्ड एक बहुचर्चित लेखक थे। बचपन में एक दिन वे समुद्र के किनारे बैठे थे। दूर समुद्र में एक जहाज लंगर डाले खड़ा था। उनके मन में जहाज तक तैरकर जाने की इच्छा बलवती हो उठी। मार्क तैरना तो जानते ही थे, कूद पड़े समुद्र में और तैरकर उस स्थान तक पहुंच गए जहां जहाज लंगर डाले खड़ा था। लेकिन जब वापस लौटने के लिए किनारे की तरफ देखा तो निराशा हावी होने लगी, वह दूर, बहुत अधिक दूर लगा।
मार्क ने लिखा है -मनुष्य जैसा सोचता है, उसका शरीर भी वैसा ही होने लगता है। कुविचारों के कारण मैं, एक फुर्तीला किशोर, बिना डूबे ही डूबा हुआ-सा हो गया। लेकिन अपने विचारों को जब मैंने निराशा से आशा की ओर धकेला, तो चमत्कार-सा होने लगा। शरीर में नई शक्ति का संचार हो रहा था। मैं समुद्र में तैर रहा था और सोच रहा था कि किनारे तक नहीं पहुंचने का मतलब है डूबकर मरने से पहले का संघर्ष। मेरा बल मजबूत हुआ, मेरे अपने ही विचारों से। जैसे मुझे संजीवनी मिल गई। पहले मन में भय था और अब विश्वास किनारे तक पहुंचने की क्षमता का।
अपने उस विचार के सहारे ही रदरफोर्ड वापस लौटकर किनारे तक पहुंचने में सफल हुआ। मार्क ने लिखा -बिना साहस के मंजिल नहीं मिलती। बिना विश्वास के संकट से उबरा नहीं जा सकता। जब डूबना ही है तो संघर्ष क्यों न करें।
विचार की शक्ति अणु से भी महान होती है। विचार ही तो है जो मनुष्य को संकट में डालता है या फिर संकट से उभारता है। विचार ही मनुष्य को नैतिक बनाता है या पतित करता है। विचार पहले, क्रिया बाद में।